प्राक्कथन

शिवपाल सिंह यादव

मेरे लिए किसी पुस्तक का प्राक्कथन लिखना कठिन कार्य है, वह भी तब जब शीर्षक ‘लोहिया, मुलायम व समाजवाद’ हो, तो कलम का एक जगह ठहर जाना स्वाभाविक है। भारत विशेषकर उत्तर प्रदेश में 21 वीं शताब्दी के पूर्वाद्ध में जो सामाजिक राजनीतिक परिदृश्य और परिप्रेक्ष्य हमारे सामने है, उसमें मुझे यह कहने में जरा भी हिचक नहीं है कि तीनों ;लोहिया, मुलायम व समाजवादद्ध एक दूसरे के प्रतीक, प्रतिनिधि, पर्याय व पूरक प्रतीत होते हैं। डा0 राममनोहर लोहिया भारतीय समाजवाद के सर्वकालिक सबसे बड़े व्याख्याता और चिन्तक हैं, उनके महाप्रयाण के पश्चात् समाजवाद का परचम कई मोड़ों से गुजरते हुए उन्हीं के शिष्य मुलायम सिंह जी के हाथों में आज पूरी गरिमा और महत्व के साथ फहरा रहा है। नेताजी ने डा0 लोहिया की समाजवादी अवधारणाओं तथा कार्यक्रमों को पूर्ण मनोयोग और प्रतिबद्धता के साथ आगे बढ़ाया। इसीलिए जब मैंने नेताजी के ऊपर लघु पुस्तिका लिखी और उसका शीर्षक ‘‘लोहिया के लेनिन - मुलायम सिंह’’ दिया तो कई बड़े बुद्धिजीवियों ने प्रशंसा करते हुए टिप्पणी दी कि लोहिया के ‘‘लेनिन’’ की संज्ञा वास्तव में किसी को दी जा सकती है तो वे मुलायम सिंह जी ही हैं। ‘‘लोहिया के लेनिन’’ लिखते वक्त ही प्रिय दीपक से चर्चा के दौरान यह महसूस किया गया कि लोहिया और नेताजी का तुलनात्मक विहंगावलोकन अथवा अध्ययन, दो कारणों से नितान्त आवश्यक है। प्रथम, लोहिया जी व नेताजी पर अभी तक कोई सादृश्यता नहीं लिखी गई है। दोनों विभूतियों की वाचिक तुलना वक्तव्यों और भाषणों में कई बार कई नेताओं और बुद्धिजीवियों द्वारा भले ही की गई हो, कुछ लेख वगैरह भी प्रकाशित हुए हों लेकिन इस संदर्भ में कोई उल्लेखनीय कार्य नहीं किया गया जिससे नई पीढ़ी और राजनीति करने वाले युवाओं को वैचारिक खुराक मिले। द्वितीय, कुछ संगठन और लोग दुष्प्रचार कर रहेे हैं कि नेताजी का लोहिया व समाजवाद से कोई सरोकार नहीं है। उनके द्वारा ‘‘नरौ व कुंजरौ वा’’ शैली में फैलाए जा रहे झूठ और मिथ्या-भ्रम को प्रत्युत्तर इस पुस्तक/विशेषांक से स्वतः ही मिल जायेगा। वस्तुतः जो लोग यह भ्रामक दुष्प्रचार कर रहे हैं, उन्होेंने न कभी लोहिया को पढ़ा है, न ही वे नेताजी के बहुआयामी सत्याग्रहों, सतत संघर्ष, सैद्धान्तिक आग्रहों और जीवन-दर्शन से अवगत हैं। यदि अवगत हैं तो ‘‘विरोध के लिए विरोध’’ की मानसिकता अथवा किसी पूर्वाग्रह से ग्रसित हैं। यह पुस्तक समाजवादी साथियों को तर्क और तथ्य रूपी हथियार प्रदान करेगी, राजनीति में तर्क, तथ्य और उदाहरण ही वे अस्त्र होते हैं, जिनसे विरोधियों को पराजित किया जाता है। लोहिया कहा करते थे कि ‘‘मेरी रुचि है बहस चलाने में, बाकी कार्य अपने आप हो जायेंगे, नेताजी भी हम लोगों को अक्सर पढ़ने-लिखने, अध्ययन-मनन व बहस चलाने के लिए प्र्रेरित करते रहते हैं। स्वयं सिद्ध है कि नेताजी मनसा-वाचा-कर्मणा समाजवादी और लोहिया के प्रतिबद्ध अनुयायी हैं। वे डा0 लोहिया की विचारधारा में प्रारम्भ से ही जुड़े, मात्र 14 वर्ष की अवस्था में सत्याग्रह व सामूहिक प्रतिकार में भाग लेते हुए 24 फरवरी 1954 को इटावा में पहली गिरफ्तारी दी। बाल-मन में जो लोहिया और समाजवाद का बीज पड़ा, वह संघर्ष की धूप, जीवटता की खाद और सतत सक्रियता का नीर पाकर आज बट-वृक्ष बन चुका है। हम लोग छोटे थे, मुझे भली-भाँति याद है, नेताजी, लोहिया जी का साहित्य, ‘‘जन’’ और ‘‘मैनकाइंड’’ लाकर पढ़ते थे, कोई पुस्तक को इधर-उधर न रख दे, या लेकर चला जाये, इसलिए लकड़ी का एक मचान बनाकर उस पर उन पुस्तकों को रखते थे। उन दिनों वे पुस्तकें ही नेताजी की सम्पत्ति हुआ करती थीं, उन्होंने समाजवादी आन्दोलन तथा विचारधारा को अपना जीवन-दर्शन बना लिया। उनकी समाजवादी वैचारिकी के प्रति प्रतिब(ता देखकर ही बी0 सत्यनारायण रेड्डी जैसे मनीषी ने उनकी प्रशंसा की, बदरी विशाल पित्ती जैसे दक्षिण भारत के बड़े आदमी ने उनके नेतृत्व को सराहा और इन सब के इतर ‘‘छोटे लोहिया’’ जनेश्वर मिश्र सदृश समाजवादी चिन्तक और बाबू कपिलदेव सिंह सरीखा समाजवादी नेता, नेताजी का नेतृत्व कदापि न स्वीकारते, यदि नेताजी प्रतिबद्ध समाजवादी न होते या उनकी लोहिया जी अथवा समाजवाद में निष्ठा संदिग्ध होती, क्योंकि ये वे विभूतियाँ थीं जिन्हें सत्ता, सुख, सम्पत्ति, सुविधाओं और साधनों से अधिक सिद्धान्त और आदर्श प्रिय था। नेताजी में सिद्धान्त और कर्म, आदर्श और व्यवहार तथा निर्गुण व सगुण का सम्यक संतुलन तथा समन्वय है, यही उनके लम्बे सार्वजनिक जीवन की सफलता का मूलमंत्र है। वे कई ऐतिहासिक घटनाओं के साक्षी हैं जिनका वर्णन इतिहास के पन्नों में होगा। भारतीय राजनीति में कई मोड़ और मुकाम आए, जब लगा समाजवादी शक्ति क्षीण हो चुकी है, ऐसे में वे अचानक नैराश्य के घोर अंधेरे में ज्योतिष्क की तरह उभरे उनका उभार धूमकेतु जैसा नहीं ध्रुव जैसा था, जो अडिग, अचल व अविचलित है। वे एकमात्र ऐसे नेता हैं जो एक तरफ विश्वबैंक, अन्र्तराष्ट्रीय मुद्रा कोष अमरीका और चीन से मोर्चा लेते हुए दिखते हैं तो दूसरी तरफ इराक, अफगानिस्तान, तिब्बत के साथ खड़े होकर वैश्विक उपनिवेशवाद को खुली चुनौती देते हैं। उनकी सिंह-गर्जना आज उन्हें समवय नेताओं से अलग और विशिष्ट बनाती है। नेताजी पर काफी कुछ लिखना शेष है। थोड़ा बहुत लिखा भी गया है, यह भी उसी मालिका की एक मोती है। मैंने पाण्डुलिपि पढ़ी, पूरी पुस्तक चार अध्यायों में विभक्त है, पहले अध्याय में लोहिया जी और नेताजी का वैचारिक साम्य दिखलाया गया है, उन विचारों को उकेरा गया है जो लोहिया जी के द्वारा प्रतिपादित और नेताजी द्वारा अनुगमित हंै। यह अध्याय एक तस्वीर प्रस्तुत करता है जो इस सच्चाई को चित्रित करती है कि नेताजी की समष्टिगत तथा व्यष्टिगत सोच व मानसिकता की वैचारिक धरातल लोहिया जी ही हैं। कई विश्वप्रसिद्ध मनोवैज्ञानिक के शोधों का निष्कर्ष है और हमारे गांव की एक मशहूर कहावत भी है, जिसका अर्थ है कि जिसकी सोच जैसी होती है, उसके व्यवहार और कार्य भी उसी के अनुसार व अनुरूप होते हैं। दूसरे अध्याय में कुछ घटनाओं और संस्मरणों के आधार पर लेखक ने लोहिया जी और नेताजी में व्यवहारगत समानताओं को तलाशा है और शब्दों में तराश कर हम सभी के सामने रखा है। तीसरे अध्याय में लोहिया जी के विचारों का उल्लेख सूत्र-वाक्यों में किया गया है और इसी में महात्मा गांधी, जयप्रकाश, आइंस्टीन समेत कई विभूतियों के कथन हैं जो उन्होंने लोहिया जी के लिए कहा था। हमारे युवा साथियों और शोध अध्येताओं को इस अध्याय से काफी सुविधा मिलेगी। उन्हें पता चलेगा कि लोहिया जी कितने महान और विराट व्यक्तित्व के स्वामी थे। चैथे अध्याय में नेताजी के वक्तव्यों के संपादित अंश हंै जो उन्होंने कई मौकों पर बोला है, इन सूत्रवाक्यों का उल्लेख भाषणों तथा लेखों में उद्धरण के रूप किया जा सकता है। नेताजी के लिए व्यक्त राय भी इस अध्याय में संकलित हैं जो विभिन्न अवसरों पर लोहिया,चरण सिंह,बीण्सत्यनारायण रेड्डी, कैफी आज़मी सदृश बड़े चिन्तकों, नेताओं तथा लेखकों द्वारा कहे और लिखे गए हैं। समाजवाद की आकाशगंगा में लोहिया जी और नेताजी की स्थिति रवि और चन्द्रमा सदृश है। जिस प्रकार सूर्य के पश्चात उसी की रोशनी को लेकर चन्द्रमा सूर्य का कार्य करता है, स्याह रातों में उजालों के प्रतिनिधि की भूमिका निभाता है, उसी प्रकार लोहिया के पश्चात् नेताजी लोहिया के विचारों की रोशनी लेकर समाज तथा राजनीति में व्याप्त विसंगतियों, विकृतियों, विडम्बनाओं व वैरूप्यताओं से लड़ रहे हैं।समाजवादी विचारधारा अथवा कोई भी विचारधारा पुस्तकों के लेखन, गोष्ठियों व परिचर्चाओं से आगे बढ़ती और परिमार्जित होती रहती है। इसलिए इस तरह की पुस्तकों/विशेषांकों का अपना महत्व है। आज यदि डा0 लोहिया के विचारों से देश का निजाम विचलित न होता तो देश की तस्वीर कुछ और होती, देश विकास क्रम में 135 देशों से पीछे न होता, देश में आर्थिक विषमता की खाई इतनी गहरी न होती, भारत दुनिया में सबसे अधिक भिखारियों, वेश्याओं तथा फुटपाथ पर रहने वाले मजदूरों का देश न कहलाता। शहर और गांव, स्त्री और पुरुष, अमीर और गरीब तथा ताकतवर और कमजोर में इतनी गैर-बराबरी न होती। देश को आज समाजवादी नीतियों और नेतृत्व की सख्त जरूरत है। भारत का इतिहास साक्षी है कि साम्प्रदायिकता तथा सामंतवादी सोच व ताकतों से यदि किसी ने पंजा लड़ाया और पराजित किया है तो समाजवादियों ने ही किया है। चाहे वह चन्द्रशेखर आजाद-भगत सिंह की अगुवाई वाली हिन्दुस्तान रिपब्लिकन सोशलिस्ट एसोसिएशन की जमात हो, आचार्य नरेन्द्रदेव-डा0 लोहिया की नेतृत्व वाली सोशलिस्ट पार्टी हो या मुलायम सिंह-जनेश्वर मिश्र की समाजवादी पार्टी की टोली हो। हर मोड़ पर समाजवादियों ने लोकतंत्र की लड़ाई लड़ी है। आम आदमी के दुःख-दर्द को स्वर दिया और उनके सर्वतोन्मुखी हितों के लिए अभियान चलाया है। यही समाजवादियों का गौरवमयी इतिहास है। हमें अपने पूर्वजों और उनकी थाती पर गर्व है, हम उनकी वैचारिक विरासत को बचाने और संजोए रखने के लिए प्रतिबद्ध हैं, यह पुस्तक इसी प्रतिबद्धता की परिणति है। इसके पहले ‘‘सांस्कृतिक उपनिवेशवाद, हिन्दी व लोहिया’’ तथा ‘‘स्वतंत्रता संग्राम, समाजवादी आंदोलन व लोहिया’’ विषयक प्रकाशन हो चुका है। लोहिया के दो ऐतिहासिक भाषणों ‘‘द्रौपदी व सावित्री’’, ‘‘दो कटघरे’’ को भी प्रकाशित कर बंटवाया जा रहा है, यह पुस्तक/विशेषांक अगला सोपान है। मानव का समूहिक श्रम कभी व्यर्थ नहीं जाता, भले ही तत्काल में लाभ न मिले । दीपक के साथ-साथ राजेश अग्रवाल, राजू श्रीवास्तव, विकास यादव, देवी प्रसाद, राहुल मिश्रा, उदय प्रताप, दीपक राय, मुफीद अहमद, सुनील देव पाल का यह समूहिक श्रम जरूर रंग लायेगा, मेरी शुभकामना और आशीष है और मुझे पूर्ण उम्मीद है कि हम लोगों की श्रम व संलग्नता का सार्थक व सकारात्मक परिणाम निकलेगा।

-शिवपाल सिंह यादव