लोहिया के सूत्रवाक्य

देश और सरकार की दृष्टि इतनी ज्यादा बिगड़ गई है कि हम आंतरिक प्रयत्न की जगह पर बाहरी प्रयत्नों पर ज्यादा विश्वास करने लगे हैं। क्या साम्राज्यवाद के बिना भी पँूजीवाद सम्भव है? इस प्रश्न का उत्तर संक्षेप में देने के पहले समझ लेना जरूरी है कि इतिहास में देने के बिना पूँजीवाद नही पनपा है। अपनी आंतरिक शक्ति पर निर्भर पूँजीवाद की संभावना सिद्धान्ततः किसी बड़ी जनसंख्या वाले बड़े देशों में नहीं है। ऐसा होने पर उसे पूँजीवाद और साम्राज्यवाद दोनों के बोझ उठाने होंगे इन बोझों से वह टूट जायेगा।

(सितम्बर 1951, दिल्ली)

यदि गाँधी जी के जीवन तथा कार्यो की कुछ बातें समाजवाद के सुसंगत वस्त्र में बुनी जाय तो एक नई सभ्यता का उदय हो सकता है और मानव जाति शान्ति तथा सम्मानजनक जीवन के युग की उम्मीद कर सकती है। चरम दारिद्र्य की अवस्था में सामाजिक चेतना मर जाती है या कम से कम क्षीण हो जाती हैं। समृद्धि और सुख में रहने वाले व्यक्ति अपने और दारिद्रय जनता के निर्ममता की प्राचीरें खड़ी कर लेते है। सामाजिक चेतना का पुनर्जागरण तभी सम्भव है जब इन प्राचीरों को ढ़हाया जाय और ये प्राचीरें तभी गिर सकती हैं जबकि आमदनियों का परस्पर अन्तर निश्चित सीमा के अन्दर रखा जाय। उच्चतम् और निम्नतम् आमदनियों में एक और दस का अन्तर वर्तमान अवस्थाओं के पूर्णरूप से उचित है।

(जनवरी, 1953, वाराणसी)

जो व्यक्ति किसी सिद्धांत को स्वीकार करता है, उसके पास उसका मूर्त बिम्ब होता है। केवल परजीवी ही बिना बिम्ब के चला सकते हैं। यूरोपियन दिमाग ने आदर्श और यथार्थ की पूर्ण एकता मान ली है जबकि भारतीय दिमाग ने दोनों के बीच पूर्ण सम्बन्ध विच्छेद मान लिया है। यही मानव-सोच का वर्तमान संकट है। मूर्त अधिक से अधिक अमूर्त की निकटता प्राप्त करे किन्तु हमेशा संगत और प्रभावकारी ढ़ंग से। युवा समाजवादियों को यह प्रतिज्ञा करनी चाहिए कि वे जब तक जिन्दा है वे बौद्धिक को क्रांति के लक्ष्य को प्राप्त करने में लगे रहेंगे।

(अगस्त 1955, पुरी)

लोकतंत्र आम आदमी के खून में गरमाहट तब पैदा करेगा जब संवैधानिक सिद्धान्त चार खम्भों के राज्य पर लागू होगा- गाँव जिला, प्रदेश और केन्द्र। समानताओं के रक्त-मांस से पुष्ट चार खम्भा राज्य का संवैधानिक ढ़ाचा लोकतंत्र में सुखद पूर्णता लाएगा। इसमें पाँचवां खम्भा जोड़ने का समय आ गया भी आ गया है, कम से कम सिद्धान्त में, यह खम्भा होगा विश्व सरकार। समाजवाद ही एशिया तथा यूरोप को बचा सकता है औ यह काम करने के लिए उसे कर्म को करुणा से, भरपूर करुणा से जोड़ना पडे़गा और उन्हें एक मूर्ति तथा विचार के रूप में बुनना पडे़गा जिसके नाक-नक्श एक कठोर पैटर्न में स्थिर न हों बल्कि उनमंें निखार आता रहे।

(जनवरी 1949, कोलकाता)

शिक्षण और प्रशिक्षण के कार्यक्रम जो पार्टी के भुजा होते हंै, अत्यन्त महत्वपूर्ण कार्यक्रम होते हैं। इनकी तरफ अब तक ध्यान नही दिया गया है। समाजवाद के सैद्धांतिक आधार को प्रशिक्षण न मिलने से सहानुभूति तथा क्रोध का मेल न होने से, समाजवादी कार्यकर्ता अपने आस-पास घृणा का जाल बिछा लेता है और जब कार्यक्रमों में वह अपने को अभिव्यक्त नहीं कर पाता तो उसमें हताश पैदा होती है। समाजवादियों को समाज के सामान्य लक्ष्यों को भी अर्थिक लक्ष्यों को भी आर्थिक लक्ष्यों के साथ जोड़ना सीखाना चाहिए। मानव जिन्दा रहेगा, आखिरी जीत समाजवाद की होगी।

(मई 1952, पंचमढ़ी)

समानता, लोकतंत्र, अहिंसा, विकेन्द्रीकरण और समाजवाद-अगर हम सारे विश्व के उचित उद्योगीकरण के सिद्धान्त को छोड़ भी दें तो न केवल भारतीय राजनीति बल्कि सारे विश्व व्यवहार के पाँच सर्वोच्च सिद्धान्त हैं।

(जनवरी 1965, हैदराबाद)

बिना संघर्ष के कभी कोई नई चीज पैदा नहीं हुई। संघर्ष हिंसा या रक्तपात से पूर्ण हो यह जरुरी नहीं।

(अगस्त, 1952, हैदराबाद)

जाति और योनि के वीभत्स कटघरों को तोड़ने से बढ़कर और कोई पुण्य कार्य नहीं है।

(जनवरी 1953, गुलमर्ग)

समाजवाद बराबरी का सिद्धान्त है। अगर हम सचेत न रहे तो यह गैरबराबरी का पतित सिद्धान्त बन जायेगा। चुनाव अथवा नियुक्ति के लिए अगर योग्यता ही एकमात्र आधार हो, तो बौद्धिक कामों में 5 हजार वर्ष पुरानी परम्परा ऊँची जातियों को नहीं पाया जा सकता। जैसे हो पहले के समाजों में भी थे, समाजवादी समाज में भी वे ऊँचे ही बने रहेंगे। कई हजार वर्ष की गलती को सुधारने और न्याय और समता के नए युग का प्रारम्भ करने द्विज को वक्ती अन्याय सहने के लिए तैयार रहना चाहिए।

(मई 1956, रायबरेली)

दुनिया के इतिहास में छोटे-छोटे गिरोहों मेें यु( हुआ और विजेता गिरोह ने पराजित गिरोह को तबाह कर डाला। किन्तु भारत की एक विशेषता यह रही है कि उसने उन गिरोहों को नष्ट नहीं करके, उनके अधिकारों को सीमित कर दिया और अपने जीवन का एक अंग बना लिया।

(अगस्त 1956, मुम्बई)

जब सिद्धान्त निजी अथवा गिरोह स्वार्थ की सामग्री बन जाते है तब उनका और सच का व्यापक और स्थायी रूप नहीं रहता और उसी से पाखंड फैलता है।

(दिसम्बर 1957, ओसियाँ)

विदेशी शासन ने हिन्दू को मुसलमान से लड़ा दिया, किन्तु इसका मतलब यह नहीें कि देश में यहाँ के धर्मों ने जो झगड़ा पैदा किया उसे छोड़ दें। हिन्दुस्तान में ब्रिटिश राज में जाति के तत्व को ठीक उसी तरह इस्तेमाल किया जिस तरह कि उसने धर्म के तत्व को। चूँकि भिडन्त कराने में जाति की शक्ति धर्म के जितनी बड़ी न थी, इस प्रयत्न में उसे सीमित सफलता मिली। जाति की चक्की बड़ी निर्दयता से चलती है। अगर वह छोटी जातियों के करोड़ों को पीस देती है, तो ऊँची जाति को भी पीसकर सच्ची ऊँची जाति और झूठी ऊँची जाति में विभक्त कर देती है।

(जून 1958, हरिद्वार)

एक चीज खराब यह है कि नीची जाति वाला जब उठता है तो वह ऊँची जाति वाले की नकल करके उन्हीं के जैसा बनना चाहता है।

17, जुलाई,1959, हैदराबाद)

छोटी जाति को उठाने के लिए सहारा देना पड़ेगा। जैसे हाथ लुंज हो जाने पर सहारा देते है और तब हाथ काम करने लगता है, उसी तरह इन नब्बे फीसदी दबे हुए लोगों को सहारा देना होगा, उस समय तक जब तक बराबरी में न आ जाए। इसीलिए, सोशलिस्ट पार्टी कहती है कि 100 में 60 ऊँची जगहें इनको दो जिनमें हरिजन, शूद्र, आदिवासी, जुलाहा, अनसार धुनिया, औरत बगैरह हैं। हिन्दुस्तान में हुकुमरानों और रियाया के बीच, वर्ग और जनता के बीच एकसानियत का लगभग पूरा अभाव है। हिन्दुस्तान की बुराइयों की जड़ में यही है।

(अगस्त 1947, दिल्ली)

  • आज समूचे हिन्दुस्तान का सारा सामाजिक और आर्थिक जीवन जाति के ऊपर संगठित है। एक वृहद बीमा कम्पनी है-जाति प्रथा। जो निचली जातियां है, उनको मौका दो, गद्दी पर आने दो।
  • जो भी हो जाति प्रथा को और विषम वास्तविकताओं को जिन पर यह प्रथा आधारित है, दोनों को नष्ट करने पर ही विश्वशान्ति स्थापित की जा रही है।
  • कारखानों में बनी किसी भी जीवनोपयोगी वस्तु का बिक्री-दाम लागत खर्च के ड्योढ़े से ज्यादा किसी भी हालत में न हो। किसी को उसके अनाज और कच्चे माल का ऐसा दाम मिले जो लागत खर्च और जीवन निर्वाह को पुसाये ताकि खेतिहर और औद्योगिक चीजों के दामों में संतुलन और समता कायम हो।
  • भारतीय इतिहास में लम्बे अरसे तक देश की आम जनता संस्कृत, फारसी या अंग्रेजी जैसी सामंत भाषाओं से पीडि़त रही है। सामंत भाषा, भूषा, भवन और भोजन वाले कुछ लोगों ने जीवन के रक्त संचार की गति को बुरी तरह अवरुद्ध कर दिया है और उसमें हीनता की भावना इतना घर कर गयी है, कि न तो वे देश के अंदरुनी शोषण के खिलाफ आवाज उठा पाये और न विदेशी हमले का ही मुकाबला कर सके। लोकभाषा और राजभाषा के बीच व्यवधान रूप से सामंती भाषा हमेशा भारतीय संस्कृति के गला घोंटू रूप में मौजूद रही है।
  • समाज में परिवर्तन लाने के तीन उपाय हैं- कानून, प्रचार और उदाहरण। गद्दी के खतरे से बचने का उपाय है - आत्म नियंत्रण।
  • अमीरी का कैलाश इतना गिरा देना चाहिए और गरीबी का पाताल इतना उठाना चाहिए कि समानता एक और दस के बीच आ जाए। हमें उन सभी कीटाणुओं को खोजना चाहिए जिसने हमारे राष्ट्रीय मन को सड़ाया है। जो समूह और जातियां तिरस्कृत हैं, उन्हें विशेष रूप से सहारा व अवसर देकर उठाना होगा।
  • समाजवाद की दो शब्दों में परिभाषा देनी हो तो वे हैं- समता और सम्पन्नता।... इन दो शब्दों में समाजवाद का पूरा मतलब निहित है, देशकाल के अनुसार सम्भव बराबरी और आदर्श के अनुसार सम्पूर्ण बराबरी।
  • मेरा बस चलता तो मैं हर हिन्दु को सिखलाता कि रजिया, जायसी, शेरशाह, रहीम उनके पुरखे हैं।
  • वैचारिक स्तर पर यह कोशिश निरन्तर करनी होगी कि सभी मौजूदा धर्म इतने स्वच्छ बने कि रूढि़वाद, विषमता और क्रूर हिंसा को पैदा करने पालने और बढ़ाने वाली प्रवृत्तियों से मुक्त हों।
  • राजनीति का लक्ष्य अगर बुराइयों से लड़ना और उन्हे दूर करना है तो धर्म का उद्देश्य अच्छाई को प्रतिष्ठित करना है। राजनीति अल्पकालीन धर्म और धर्म दीर्धकालीन राजनीति है।
  • मुझे दुःख है कि समाजवादी दल के सदस्य वाद-विवाद सभाओं, विचार बैठकों और इसी तरह के अन्य बौद्धिक कार्याे को पर्याप्त महत्व नही दे रहे है।
  • समानता, प्रजातंत्र, अहिंसा, विकेन्द्रीकरण एवं समाजवाद-ये पांचों अवधारणायें भारतीय राजनीति का समग्र लक्ष्य ही नहीं है अपितु सम्पूर्ण विश्व के लिए ये सिद्धान्त अत्यन्त महत्वपूर्ण और सर्वाेपरि हैं।
  • नासमझ तो बेईमान से ज्यादा मुसीबत दुनिया के लिए पैदा करता है।
  • संसार में जितनी भी प्रकार के अन्याय इस पृथ्वी को विषाक्त कर रहे हैं, उनमें से सबसे बड़ा अन्याय नर-नारी का विभेद है। पूरा संसार किसी न किसी रूप में प्रति उदासीन है। आज भी स्त्रियों को सामूहिक जीवन में पुरुष के बराबर भाग लेने का अधिकार नहीं है।
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